इन फाश्लों में जीना भी कितना मुश्किल होता है ! शायद उतना जितना कुछ पल साँस न ले पाना !
उफ्फ़ ये तुम्हारा इंतजार भी ना जाने कितने और दिन पूरी रात जगायेगा !
सर्वाधिकार सुरक्षित !
*मनीष मेहता !
याद हें तुम्हें, हमने कुछ बरस पहले, अपने आँगन में नीम का एक पौधा रोपा था, फिर हर रोज अपने प्यार से सींचा था उससे, कितना ख्याल रखा था तुमने उस नीम के छोटे से पौधे का, शायद मुझसे भी ज्यादा ! जानते हो आज शाम छत पै बैठा हूँ, उसी जगहा पै, अब नीम का पेढ़ बड़ा हो गया है शायद हमारे प्यार से भी ज्यादा बड़ा ! अभी अभी उस नीम की डाल पै चाँद आ टिका था, मुझे अब भी याद है जब हम अक्सर चांदनी रातों में छत पै बैठा करते थे, इसी जगहा पै कुछ इसी तरहा ! तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में उलझाए घंटों गुप्तगू किया करते थे, और तुम्हारा अक्सर ऊँगली से तारे गिनना में उस पल में तुम्हारी इस हरकत को देखे रहता, फिर तुम्हारा गिनती भूल जाना फिर से दुबारा गिनना ! ये कई पल बस इक छोटे से एहसास की तरहा लगते थे ! सबसे खुबसूरत पल वो होता था जब में उस पल में चाँद को छोड़ तुम्हारे चेहरे को देखते रहता था, उसपे जी जान लुटाया करता था, तुम खामोश सी उस सुनासन से पलों को महका देती थी ! आज चाँद तो आ गया लेकिन तुम्हारे आने का इंतजार है अब तलक !
इन फाश्लों में जीना भी कितना मुश्किल होता है ! शायद उतना जितना कुछ पल साँस न ले पाना ! उफ्फ़ ये तुम्हारा इंतजार भी ना जाने कितने और दिन पूरी रात जगायेगा ! सर्वाधिकार सुरक्षित ! *मनीष मेहता !
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"जाने फिर कितने दिन इंतजार में गुज़ार दिए उसने ! सुबहा से शाम अपने कमरे की खिड़की में लगे परदे के पीछे से झांकती रहती थी ! शायद उसके लौट आने का इंतजार था उसे ! और ये सोचती रहती की काश इक बार लौट के आता...!
मेरी बात सुनता मुझे फिर से समझ पाता ! दिन कुछ यूँ गुज़र रहे थे उसके जैसे रेगिस्थान में प्यासा तडपता हूँ हिरन इक इक कदम खिसक खिसक के चल रहा हो, और हर अगले क़दम पै उससे अपनी मंजिल नज़र आ रही हो ! कुछ पल यूँ ही ख़ामोश रखने के बाद उसने डायरी के कोरे पन्नो में सयाई फेरी ! कुछ सब्द उभर आये कितना याद आते हो ! और बहुत कुछ लिखना चाहती थी वो .. न जाने क्यूँ लफ्ज़ नहीं मिल रहे थे उससे .. कलम थम सी गई थी ...सांसें धधक रही थी, जैसे कि जलते हुए आग में घी डाल दिया हो ! आँखें लाल हो चुकी थी ..रो-रो के ! सामने पड़ी डायरी के पन्ने आंसुओं कि बरसात में गिले हो गए थे ..! आंसूं वो सब कुछ कह गये थे जो शायद वो मुद्दतों से कहना चाहती थी....लिखना चाहती थी ! और बहुत लिखने कि कोशिस कि उसने...सिर्फ इतना लिख पाई...! आज सांसें भी चुब रही है मेरी...धधकने सिमट सी गई है ! जीने कि कोई आरज़ू नहीं ! आ जाओ अब, कि ज़िन्दगी कम सी है !!! "इंतज़ार तेरा ही करता हूँ में अब तलक, अब कैसे कह दूँ कि प्यार नहीं है तुझसे 'मनीष' !!" मनीष मेहता ! सर्वाधिकार सुरक्षित © 2011, http://manishmehta.weebly.com/ "ना जाने क्यूँ आज दिल में एक चुभन सी है, यादों के झरोखों से झाँक के देखा तो सामने खुबसूरत बचपन का ज़मान था, सचमुच कितना खुबसूरत था न बचपन का ज़माना !
वो बचपन कि मस्तियाँ, वो शरारतें, दादी का ऐनक छुपा देना, दादाजी को घोड़ा बना के उनकी सवारी करना, गुल्ली-डंडा लिए दोस्तों के साथ घंटों खेलना, वो गुड्डे कि शादी में बाराती बन के नाचना, बरसात के बाद खिलखिलाती धूप पै घर से निकलना, पानी पै छप्प-छप्प खेलना, कागज़ कि नाव बना के पानी पै खेलना, और कपड़ों को भीगा देना, फिर बाबूजी की डांट और मेरा नाराज़ हो जाना तुम्हारा मुझे गोद पै रखना, और मनाना, सच कहू तो जब तुम मुझे अपनी गोद पै रखती थी न और प्यार से अपने हाथों से मेरे बालों को सहलाती थी न, कितना अच्छा लगता था उस पल, तुम्हारा मुझे समझाना, "कि बेटा अच्छे बच्चे ये नहीं करते, अच्छे बच्चे वो नहीं करते, में चुपचाप सुनता रहता था तब ! मुझे याद है जब पहली बार में तुमसे जुदा हुआ था, १० वी कि परीक्षा पास करने के बाद जब में आगे कि पढाई के लिए शहर आ रहा था, कितना रोई थी तुम मुझसे लिपट के उस पल, और तब तक मुझे देखती रही थी, जब तक में तुम्हारी नज़रों से ओझल न हो गया था. शायद उसके बाद तक भी, तुम्हारा प्यार भरा नर्म स्पर्श अब भी महसूस करता हूँ ! याद हें मुझे मेरे मना करने पर भी तुम्हारा वो बैग में चुपके से परांठे रख देना...उस रात को जब बैग में उलट पुलट के देखता था, कि तुमने कुछ रखा होगा, और किताबों के दरमियान उन पराठों को पाकर, दिल भर जाता था, वो पल मुझे सबसे प्यारे लगते हैं ! उन पराठों को छुते ही तुम्हारे होने का अहसास होता था, जेसे ही पहला नेवला लेता था, तो तुम्हरे हाथों कि खुशबू महकने लगती थी, और उन्हें खा कर अक पल के यूँ लगने लगता था कि जेसे तुम यही कही हो मेरे पास, और प्यार से मेरे बालों में उंगलिया फिर रही हो, और कह रही हो कि तुम मेरे प्यारे प्यारे बेटे हो ! और न जाने फिर कब नीद के आगोश में चला जाता था में पता ही नहीं चलता था ! रात जब तुम ख्वाबों में आयीं तो लगा यूँ कि जैसे मन की मुराद पूरी हो गयी हो, एक बार फिर से तुम्हे गले लगाकर दिल को सुकून मिला, देर शाम रसोई से निकल जब तुम मेरे पास आ, पहला निवाला खिलाती हो, वो मुझे सबसे प्यारा लगता है, और पेट भर जाने पर भी जब तुम कहती हो बस एक और एक और सह माँ बहुत याद आता है, जब यहाँ दूर ख़ुद को तन्हा पाता हूँ, हर बार पहले निवाले पर तुम याद आ जाती हो, वही मुस्कुराता चेहरा, और वही तुम्हारे हांथों में पहला निवाला ! सच माँ जिंदगी में इस जीने की दौड़ और चंद कागज़ के टुकड़ों की चाहत ने मुझे तुमसे कितना दूर कर दिया शायद बहुत दूर, जब भी आँखें भर आती हैं, तो तुम्हारे पास भाग आने को मन करता है, तुम्हारे गोद में सर रख के जोर से रोने को मचलता है, दिल करता है फिर से वही ज़िन्दगी जियूं, वो सार दिन खेलना ..तुम्हारे आँचल टले जिंदगी गुजारना, तुम्हारा ऊँगली पकड़ मुझे स्कूल तक छोड़कर आना, छुट्टी हो जाने पर वहीँ खड़े रहना इस विश्वास के साथ कि माँ आएगी मुझे ले जायेगी, और फिर दूर तुम्हारा मुझे आते दिखाई देना , और दिल ही दिल खुश होना ! और वो फिर तुम्हारे हाँथों से खाना खाना , जबरन दूध का गिलास लेकर तुम्हारा मेरे पास आना , मेरा रोज़ की तरहा मना करना और फिर तुम्हारा मुझे प्यारी प्यारी कहानिया सुनाना, मुझे याद है मुझे दूध अच्छा नहीं लगता लगता था, लेकिन तुम्हारे प्यारे हाथों के अहसास में खों के कब जाने दूध का गिलास खत्म कर देता था, पता भी नहीं चलता, शायद तुम्हारे हाथों में कुछ जादू था ~ फिर पूरे दिन खेल में मस्त रहना, पापा के डाँटने पर अपनी गोद में छुपा लेना, सच माँ सब कुछ पहले जैसा हो तो कितना अच्छा हो है ना, ना मेरे घर से आने पर तुम उदास हो, और ना मैं दूर जिंदगी की दौड़ लगाऊँ ! सच माँ एक बार फिर से तुम्हारे आँचल की छत के तले, प्यार की दीवारों के बीच ज़िन्दगी गुजारने को मिल जाए तो कितना सुखद हो, मेरा रूठना , तुम्हारा मनाना, पास आना, सीने से लगाना ! माँ अभी अभी फिर से तुम्हारे नर्म हाथों को महसूस किया मैंने, ऐसा लगा जैसे तुम इतने दूर से भी मेरे मन को सुन रही हो, हमेशा की तरह और कह रही हो में तुम्हारें पास हूँ हर पल ! माँ तुम मुझे बहुत याद आती हो ! तुम्हारा - मनीष ! मनीष मेहता (सर्वाधिकार सुरक्षित) कल बरसों बाद अपने इस घर के छोटे से कमरे में आया,
तो यादों के एक कारवें से रूबरू हुआ... कमरे के हर एक कोने मै बसा यादों का धुंआ, मेरी आँखों से एक लम्हां चुरा गया..यादों का धुंआ आज फिर मेरी पलकों को भिगो गया... कमरें मै पड़ी एक पुरानी मेज़, उस पर सजी चंद किताबें.. और उनपें जमीं धुल कि चांदर सी लिपटी हुई एक परत. .मैने एक किताब को अपने हाथों मै लिया, और बारी-बारी से,अपने नरम हाथों से धूल कि चांदर को हटाया, तो यूँ लगा जैसे किताबें मेरा शुक्रिया अदा कर रही हो.. मेज़ के नीचे दराज़ को खोल के देखा तो. उसमें पड़ी एक पुरानी डायरी मिली, जो कुछ बरस पुरानी थी (जो कॉलेज के ज़माने कि थी ) .. जिसमे ज़िन्दगी के कुछ हसीं पल कैद किये थे मैने..ज्यूँ ही डायरी के पन्नो को पलटने लगा..अचानक तुम्हारी एक तस्वीर के दीदार हुए.. मैने तुम्हारी तस्वीर को अपने हाथों मै लिए निहारने लगा.. वही बड़ी बड़ी आँखें ..वही मुस्कुराता हुआ चेहरा ..मुझे अनायास बीते हुए पलों कि और ले गया...मेरे अनगिनत से सवालात .. और तुम्हारी खमोशी, शायद तुम्हारी तस्वीर से बातें करने लगा था उस पल मैं ..सब कुछ तो वैसे ही था ...फिर भी यूँ लगा कि मुझसे कह रही हो ..कि बहुत बदल गये हो तुम... मेज़ के दराजों मै तुम्हारी यादों को तलाशने लगा था मैं.. शायद तुम्हारी यादों के उन लम्हों को छूना चाहता था मैं. नज़र इधर-उधर दोड़ाई तो ..तो एक ख़त मिला..जो तुमने लिखा था मुझसे कुछ बरस पहले..दिल कि धड़कने तेज़ होने लगी, और आँखों के सामने वो कॉलेज का ज़माना, वो मस्तियाँ, वो घंटों बातें करना...उन पहाड़ी वाले रास्तों पै..बे-मतलब बे-परवाह मीलों चलना..सामने खड़े पेड़ों को गिनना .. वो तुम्हारी ice-cream के लिए जिद करना .. पहाड़ों पै पत्थर से लकीरे खीचना, और अपने नाम के साथ मेरा नाम लिखना. याद है मुझे उस रोज़ जब हम उस पहाड़ी पै उस बड़े पेड़ के निचे बैठे थे .. बाँहों में बाहें डाले हुए..तुम्हारी आँखों मै आसूं के कुछ बुँदे थी... शायद इसलिए कि उस जगहा पै हमारी. आंखिरी मुलाक़ात थी ... और तुमने उस पल मेरा हाथ थामते हुए पूछा था, मनीष कब तक यूँ ही साथ रहोगे.......??? कब तक यूँ ही साथ दोगे ?? सहर कि हवाओं मै कहीं इस खुशबू को भुला तो ना दोगे..?? तुम्हारे इन सवालों से ...मेरी आँखें भी नम हो गई थी उस पल. याद है ना तुम्हें ........हाँ याद ही होगा .. तुम्हें याद रखने कि आदत जो थी .. अचानक कमरे मै किसी के आने कि आहट, ख्यालों कि दुनिया मै भटक रहे मुसाफिर को कब वापस हकीकत कि दुनिया मै ले आई.. अहसास भी ना हुआ... सामने एक मित्र खड़ा था..शायद मुझसे मिलने आया था.. बरसो बाद मिल रहे थे हम दोनों..मेरी आँखों से छलकते आसुओं कि चंद बूदें.. और लब पै ख़ामोशी..सब कुछ बयां कर रही थी ... मेरे खामोश लब आज फिर मेरे जेहन मै कुछ सवालात छोड़ गये...क्या तुम्हें अब भी मेरी याद आती है.........?? शायद आती होगी....मुझे जो बहुत आती है.... तुम और तुम्हारी यादें ...जीने नहीं देती मुझे .......!!! तुम्हारा . मनीष मेहता (एक ख़्वाब हूँ मै .........ख्व़ाब कभी मरते नहीं भटकते रहते है अक्सर दर-बदर ) |