ज़ख्म था जो कल तलक,
इक अंकुर फूट आया है उसपे आज,
छोटा सा नन्हां सा !
सोचता हूँ इसे सँवार लूँ ,
पाल लूँ,
दुनिया से छुपा के,
रखूं अपनी पलकों तले,
छूने न दूं किसी को,
फूल उग जायेंगे जब कभी,
इनपे तेरी यादों के,
महक उठेगी,
घर के कोने-कोने में,
इक ज़ख्म जो तुने दिया था,'
*मनीष मेहता !